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बेगाना ज़बान और नबुवत
मुहब्बत के तालिब हो और रूहानी ने'मतों की भी आरज़ू रखो खुसूसन इसकी नबुव्वत करो। क्यूँकि जो बेगाना ज़बान में बातें करता है वो आदमियों से बातें नहीं करता, बल्कि ख़ुदा से; इस लिए कि उसकी कोई नहीं समझता, हालाँकि वो अपनी पाक रूह के वसीले से राज़ की बातें करता है। लेकिन जो नबुव्वत करता है वो आदमियों से तरक़्क़ी और नसीहत और तसल्ली की बातें करता है। जो बेगाना ज़बान में बातें करता है वो अपनी तरक़्क़ी करता है और जो नबुव्वत करता है वो कलीसिया की तरक़्क़ी करता है।
अगरचे मैं ये चाहता हूँ कि तुम सब बेगाना ज़बान में बातें करो, लेकिन ज़्यादा तर यही चाहता हूँ कि नबुव्वत करो; और अगर बेगाना ज़बाने बोलने वाला कलीसिया की तरक़्क़ी के लिए तर्जुमा न करे, तो नबुव्वत करने वाला उससे बड़ा है।
पस ऐ भाइयों! अगर मैं तुम्हारे पास आकर बेगाना ज़बानों में बातें करूँ और मुक़ाशिफ़ा या इल्म या नबुव्वत या ता'लीम की बातें तुम से न कहूँ; तो तुम को मुझ से क्या फ़ाइदा होगा? चुनाँचे बे'जान चीज़ों में से भी जिन से आवाज़ निकलती है, मसलन बाँसुरी या बरबत अगर उनकी आवाज़ों में फ़र्क़ न हो तो जो फूँका या बजाए जाता है वो क्यूँकर पहचाना जाए? और अगर तुरही की आवाज़ साफ़ न हो तो कौन लड़ाई के लिए तैयारी करेगा? ऐसे ही तुम भी अगर ज़बान से कुछ बात न कहो तो जो कहा जाता है क्यूँकर समझा जाएगा? तुम हवा से बातें करनेवाले ठहरोगे।
10 दुनिया में चाहे कितनी ही मुख़्तलिफ़ ज़बाने हों उन में से कोई भी बे'मानी न होगी।
11 पस अगर मैं किसी ज़बान के मा' ने ना समझूँ, तो बोलने वाले के नज़दीक मैं अजनबी ठहरूँगा और बोलने वाला मेरे नज़दीक अजनबी ठहरेगा। 12 पस जब तुम रूहानी नेअ'मतों की आरज़ू रखते हो तो ऐसी कोशिश करो, कि तुम्हारी नेअ'मतों की अफ़ज़ूनी से कलीसिया की तरक़्क़ी हो। 13 इस वजह से जो बेगाना ज़बान से बातें करता है वो दुआ करे कि तर्जुमा भी कर सके। 14 इसलिए कि अगर मैं किसी बेगाना ज़बान में दुआ करूँ तो मेरी रूह तो दुआ करती है मगर मेरी अक़्ल बेकार है।
15 पस क्या करना चाहिए? मैं रूह से भी दुआ करूँगा और अक़्ल से भी दुआ करूँगा; रूह से भी गाऊँगा और अक़्ल से भी गाऊँगा। 16 वर्ना अगर तू रूह ही से हम्द करेगा तो नावाक़िफ़ आदमी तेरी शुक्र गुज़ारी पर “आमीन” क्यूँकर कहेगा? इस लिए कि वो नहीं जानता कि तू क्या कहता है।
17 तू तो बेशक अच्छी तरह से शुक्र करता है, मगर दूसरे की तरक़्क़ी नहीं होती। 18 मैं ख़ुदा का शुक्र करता हूँ, कि तुम सब से ज़्यादा ज़बाने बोलता हूँ। 19 लेकिन कलीसिया में बेगाना ज़बान में दस हज़ार बातें करने से मुझे ये ज़्यादा पसन्द है, कि औरों की ता'लीम के लिए पाँच ही बातें अक़्ल से कहूँ।
20 ऐ भाइयों! तुम समझ में बच्चे न बनो; बदी में बच्चे रहो, मगर समझ में जवान बनो। 21 पाक कलाम में लिखा है
ख़ुदावन्द फ़रमाता है,
“मैं बेगाना ज़बान और बेगाना होंटों से
इस उम्मत से बातें करूँगा
तोभी वो मेरी न सुनेंगे।”
22 पस बेगाना ज़बाने ईमानदारों के लिए नहीं बल्कि बे'ईमानों के लिए निशान हैं और नबुव्वत बे'ईमानों के लिए नहीं, बल्कि ईमानदारों के लिए निशान है। 23 पस अगर सारी कलीसिया एक जगह जमा हो और सब के सब बेगाना ज़बाने बोलें और नावाक़िफ़ या बे'ईमान लोग अन्दर आ जाएँ, तो क्या वो तुम को दिवाना न कहेंगे।
24 लेकिन अगर जब नबुव्वत करें और कोई बे'ईमान या नावाक़िफ़ अन्दर आ जाए, तो सब उसे क़ायल कर देंगे और सब उसे परख लेंगे; 25 और उसके दिल के राज़ ज़ाहिर हो जाएँगे; तब वो मुँह के बल गिर कर सज्दा करेगा, और इक़रार करेगा कि बेशक ख़ुदा तुम में है।
26 पस ऐ भाइयों! क्या करना चाहिए? जब तुम जमा होते हो, तो हर एक के दिल में मज़्मूर या ता'लीम या मुक़ाशिफ़ा, या बेगाना, ज़बान या तर्जुमा होता है; सब कुछ रूहानी तरक़्क़ी के लिए होना चाहिए। 27 अगर बेगाना ज़बान में बातें करना हो तो दो दो या ज़्यादा से ज़्यादा तीन तीन शख़्स बारी बारी से बोलें और एक शख़्स तर्जुमा करे। 28 और अगर कोई तर्जुमा करने वाला न हो तो बेगाना ज़बान बोलनेवाला कलीसिया में चुप रहे और अपने दिल से और ख़ुदा से बातें करे।
29 नबियों में से दो या तीन बोलें और बाक़ी उनके कलाम को परखें। 30 लेकिन अगर दूसरे पास बैठने वाले पर वही उतरे तो पहला ख़ामोश हो जाए।
31 क्यूँकि तुम सब के सब एक एक करके नबुव्वत करते हो, ताकि सब सीखें और सब को नसीहत हो। 32 और नबियों की रूहें नबियों के ताबे हैं। 33 क्यूँकि ख़ुदा अबतरी का नहीं, बल्कि सुकून का बानी है
जैसा मुक़द्दसों की सब कलीसियाओं में है। 34 औरतें कलीसिया के मज्मे में ख़ामोश रहें, क्यूँकि उन्हें बोलने का हुक्म नहीं बल्कि ताबे रहें जैसा तौरेत में भी लिखा है। 35 और अगर कुछ सीखना चाहें तो घर में अपने अपने शौहर से पूछें, क्यूँकि औरत का कलीसिया के मज्मे में बोलना शर्म की बात है। 36 क्या ख़ुदा का कलाम तुम में से निकला या सिर्फ़ तुम ही तक पहुँचा है।
37 अगर कोई अपने आपको नबी या रूहानी समझे तो ये जान ले कि जो बातें मैं तुम्हें लिखता हूँ वो ख़ुदावन्द के हुक्म हैं। 38 और अगर कोई न जाने तो न जानें।
39 पस ऐ भाइयों! नबुव्वत करने की आरज़ू रख्खो और ज़बाने बोलने से मनह न करो। 40 मगर सब बातें शाइस्तगी और क़रीने के साथ अमल में लाएँ।