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अय्योब का संवाद समापन 
 
1 तब अपने वचन में अय्योब ने कहा:   
2 “उपयुक्त तो यह होता कि मैं उस स्थिति में जा पहुंचता जहां मैं कुछ माह पूर्व था,  
उन दिनों में, जब मुझ पर परमेश्वर की कृपा हुआ करती थी,   
3 जब परमेश्वर के दीपक का प्रकाश मेरे सिर पर चमक रहा था.  
जब अंधकार में मैं उन्हीं के प्रकाश में आगे बढ़ रहा था!   
4 वे मेरी युवावस्था के दिन थे,  
उस समय मेरे घर पर परमेश्वर की कृपा थी,   
5 उस समय सर्वशक्तिमान मेरे साथ थे,  
मेरे संतान भी उस समय मेरे निकट थे.   
6 उस समय तो स्थिति ऐसी थी, मानो मेरे पैर मक्खन से धोए जाते थे,  
तथा चट्टानें मेरे लिए तेल की धाराएं बहाया करती थीं.   
   
 
7 “तब मैं नगर के द्वार में चला जाया करता था,  
जहां मेरे लिए एक आसन हुआ करता था,   
8 युवा सम्मान में मेरे सामने आने में हिचकते थे,  
तथा प्रौढ़ मेरे लिए सम्मान के साथ उठकर खड़े हो जाते थे;   
9 यहां तक कि शासक अपना वार्तालाप रोक देते थे  
तथा मुख पर हाथ रख लेते थे;   
10 प्रतिष्ठित व्यक्ति शांत स्वर में वार्तालाप करने लगते थे,  
उनकी तो जीभ ही तालू से लग जाती थी.   
11 मुझे ऐसे शब्द सुनने को मिलते थे ‘धन्य हैं वह,’  
जब मेरी दृष्टि उन पर पड़ती थी, यह वे मेरे विषय में कह रहे होते थे.   
12 यह इसलिये, कि मैं उन दीनों की सहायता के लिए तत्पर रहता था, जो सहायता की दोहाई लगाते थे.  
तथा उन पितृहीनों की, जिनका सहायक कोई नहीं है.   
13 जो मरने पर था, उस व्यक्ति की समृद्धि मुझे दी गई है;  
जिसके कारण उस विधवा के हृदय से हर्षगान फूट पड़े थे.   
14 मैंने युक्तता धारण कर ली, इसने मुझे ढक लिया;  
मेरा न्याय का काम बाह्य वस्त्र तथा पगड़ी के समान था.   
15 मैं दृष्टिहीनों के लिए दृष्टि हो गया  
तथा अपंगों के लिए पैर.   
16 दरिद्रों के लिए मैं पिता हो गया;  
मैंने अपरिचितों के न्याय के लिए जांच पड़ताल की थी.   
17 मैंने दुष्टों के जबड़े तोड़े तथा उन्हें जा छुड़ाया,  
जो नष्ट होने पर ही थे.   
   
 
18 “तब मैंने यह विचार किया, ‘मेरी मृत्यु मेरे घर में ही होगी  
तथा मैं अपने जीवन के दिनों को बालू के समान त्याग दूंगा.   
19 मेरी जड़ें जल तक पहुंची हुई हैं  
सारी रात्रि मेरी शाखाओं पर ओस छाई रहती है.   
20 सभी की ओर से मुझे प्रशंसा प्राप्त होती रही है,  
मेरी शक्ति, मेरा धनुष, मेरे हाथ में सदा बना रहेगा.   
   
 
21 “वे लोग मेरे परामर्श को सुना करते थे, मेरी प्रतीक्षा करते रहते थे,  
इस रीति से वे मेरे परामर्श को शांति से स्वीकार भी करते थे.   
22 मेरे वक्तव्य के बाद वे प्रतिक्रिया का साहस नहीं करते थे;  
मेरी बातें वे ग्रहण कर लेते थे.   
23 वे मेरे लिए वैसे ही प्रतीक्षा करते थे, जैसे वृष्टि की,  
उनके मुख वैसे ही खुले रह जाते थे, मानो यह वसन्त ऋतु की वृष्टि है.   
24 वे मुश्किल से विश्वास करते थे, जब मैं उन पर मुस्कुराता था;  
मेरे चेहरे का प्रकाश उनके लिए कीमती था.   
25 उनका प्रधान होने के कारण मैं उन्हें उपयुक्त हल सुझाता था;  
सेना की टुकड़ियों के लिए मैं रणनीति प्रस्तुत करता था;  
मैं ही उन्हें जो दुःखी थे सांत्वना प्रदान करता था.